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आसां नहीं है, घर में अपने को रोता छोड़ दूसरे के आंसू पोछना, मगर हमने किया है…

आज जब कोरोना के डर से लोग घरों से निकलने में सहम जाते हैं. ऐसे में रोज हॉस्‍प‍िटल में जिंदगी की उम्‍मीद बनकर डॉक्‍टरों के कंधे से कंधा मिलाकर नर्सिंग स्‍टाफ अस्‍पतालों में डटा है. जब किसी अपने की सांसें टूटने लगती हैं, वे अस्‍पताल की ओर भागते हैं. यहां डॉक्‍टर मरीज को देखकर उन्‍हें आईसीयू या वेंटीलेटर में इलाज करने के लिए रखते हैं. इस पूरे वक्‍त जब क‍िसी अपने को भीतर आने की इजाजत नहीं होती है तब ये सफेद कपड़े पहने मसीहा इलाज के साथ-साथ उम्‍मीद बंधा रहे होते हैं. लेकिन क्‍या आपने कभी सोचा है क‍ि इस बुरे दौर में वो कितनी बार टूटे हैं. मरीजों के सामने मुस्‍कुराने वाले ये चेहरे कितनी ही बार आंसुओं में सराबोर हो गए हैं. आज इंटरनेशनल डे पर हम आपको कोविड के दौरान ड्यूटी कर रही कुछ नर्सिंग स्‍टाफ की जिंदगी का ये हिस्‍सा साझा कर रहे हैं. कमोबेश इनकी बात लाखों नर्सेज की बात से बहुत ज्‍यादा अलग नहीं है. आइए जानें इनके बारे में और इस खास दिन पर एक सैल्‍यूट इन्‍हें भी दें.

पहली आपबीती है नोएडा के एक सरकारी अस्‍पताल में ग्रेड-2 स्‍टाफ नर्स श्‍वेता राय की. 14 साल की नौकरी में ये पहला दौर है जब कई बार 12 घंटे की नौकरी के बाद उनका शरीर थककर टूटने के बजाय उनका मन टूटा है. श्‍वेता बताती हैं क‍ि मैं साल 2007 से जॉब कर रही हूं. नॉर्मल डे में भी हमारा जॉब चैलेंजिंग होता है, लेकिन इतना नहीं होता. तब हम ये नहीं सोचते थे कि काम के दौरान अपनी लाइफ के साथ साथ हम फैमिली की लाइफ भी खतरे में डाल रहे हैं. बीते अप्रैल में पहली बार मैंने अपने पेशे में रहते डर को इतना करीब से महसूस किया. हां किसी के न बच पाने पर दुख बहुत होता था लेकिन हमारे मन में ये तसल्‍ली होती थी कि हमने बचाने की कोश‍िश की. पूरा इलाज किया गया लेकिन वो ठीक नहीं हो सका. लेकिन ये ऐसा समय था जब ये डर महसूस हुआ कि हम चाहकर भी मरीजों बचा नहीं पाते थे क्‍योंकि
ऑक्‍सीजन नहीं थी.

श्‍वेता आगे बताती हैं क‍ि इसी दौरान एक दिन ऐसा भी आया जब मेरी ड्यूटी के दौरान ही छह जवान लेागों की मौत हो गई. हम बिना ऑक्‍सीजन के उन्‍हें बचा नहीं सकते थे. उस दिन मैं शि‍फ्ट खत्‍म करके सुबह आठ बजे घर पहुंची तो मेरी आंख से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. उस वक्‍त बस ये डर बैठ गया क‍ि अब कोई नहीं बचेगा. अगर मेरे परिवार को ही ऐसी कोई जरूरत हुई तो मैं उन्‍हें ऐसे नहीं देख पाऊंगी. बार बार वही दृश्‍य मेरी आंखों से गुजर रहा था जब मैं अपने सामने देख रही थी कि कैसे लोग ऑक्‍सीजन की आस में सांस तोड़ रहे थे. वाकई वो लोग कोरोना से मरना डिजर्व नहीं करते थे. ऑक्‍सीजन मिलती तो उनका इलाज हो सकता था लेकिन हम कुछ नहीं कर पा रहे थे. वो कहती हैं कि जब हम इस पेशे में आते हैं तो भीतर से ये प्रत‍िबद्धता होती है क‍ि हम अपनी सेवा भाव से दूसरों की जान बचाने की हर कोश‍िश करेंगे. जब हॉस्‍प‍िटल से लोग मुस्‍कुराकर घर लौटते हैं तो दिल में कहीं अजीब संतुष्‍ट‍ि महसूस होती है.

इसी कड़ी में लोकनायक जयप्रकाश हॉस्‍प‍िटल दिल्‍ली में नर्सिंग ऑफिसर दयाराम चौधरी ने भी अपने अनुभव साझा किए. वो कहते हैं कि आप दूसरे पेशों में निसंदेह नाम कमा सकते हैं, पैसा कमा सकते हैं, लेकिन किसी का हमदर्द बनना है तो आपको सबसे पहले नर्स बनना होगा. वो बताते हैं कि मेरी पत्‍नी की सात मई को कोरोना रिपोर्ट पॉजिट‍िव आई तो मैं काफी पेरशान था क्‍योंकि उन्‍हें सांस लेने में दिक्‍कत से लेकर बुखार जैसे सिंप्‍टम काफी ज्‍यादा थे. किसी तरह जब ड्यूटी करके मैं घर लौट रहा था तो गेट के बाहर ही एक मरीज के परिजन मेरी कार के सामने आकर खड़े हो गए. उनके चेहरे की बेबसी देख जैसे मैं अपनी बीवी को एकदम भूल गया. मैं रुका फिर उनको सुना और समाधान कराया.

दयाराम बताते हैं क‍ि इसी बीच, आठ दस अन्‍य लोगों के परिजन आ गए. मुझे सबको सुनना पड़ा. मैं हमेशा सोचता हूं कि ये महामारी का बुरा दौर भले ही है लेकिन इंसानियत कमाने के लिए दूसरा पल आएगा भी नहीं. मैंने बीते साल भी पब्‍ल‍िक के डर को निकालने के लिए कोविड वार्ड में ड्यूटी के लिए खुद अपनी तरफ से नाम दिया था. कई बार हमें मरीजों के लिए अपनों के दुख को भी भूलना होता है. क्‍योंकि जब वार्ड में कोई अकेला होता है तो हमारा कर्तव्‍य है कि हम उसे अकेला महसूस न होने दें. हमें अपने चेहरे पर मुस्‍कुराहट ही द‍िखानी होती है ताकि किसी का हौसला न टूटे.

एलएनजेपी की मेन कैजुअल्‍टी में तैनात नर्सिंग आफ‍िसर मनस्‍व‍िनी की कहानी भी भावुक कर देने वाली है. मेन कैजुएल्‍टी में काम करना आम दिनों में काफी मुश्‍क‍िलों भरा होता है, लेकिन यहां से ड्यूटी खत्‍म करके नर्सेज की जिंदगी दोबारा पटरी पर आ जाती है. मनस्‍व‍िनी बताती हैं कि पिछले साल जब कोविड का दौर स्‍टार्ट हुआ, मेरी बेटी 11 माह की थी. उसी समय पता चला कि कोविड ड्यूटी करनी थी. मेरी बेटी मां का दूध पीती थी. उस समय बेटी से दूर रहकर ड्यूटी करना होता था. 14 दिन बाहर ही रहना होता था, ये अलगाव खाली वक्‍त में बहुत खलता था. फिर इसी दौरान क्‍वारंटीन पीरियड में ही मेरी रिपोर्ट पॉजिट‍िव हो गई. ससुर, पति और बच्‍चे को छोड़ा तो उन्‍हें भी प्रॉब्‍लम फेस करनी पडी.

मनस्‍व‍िनी बताती हैं क‍ि सारे पेशेंट आसपास होते हैं तो सब भूल जाती हैं. इसी दौरान मैंने बच्‍चे को बढ़ते देखा है लेकिन उसे खुलकर गले नहीं लगा पाई लेकिन, फिर भी अफसोस नहीं है क्‍योंकि दूसरों की केयर कर पा रही हूं. पीपीई किट में हर वक्‍त रहना असहज होता है लेकिन लोग जब हममें होप देखते हैं तो बहुत संतुष्‍ट‍ि मिलती है. अब तो बच्‍चे ने खुद को संभाल लिया. वो ढाई साल की हो गई है. भले ही हमें कई बार लोगों का गुस्‍सा भी झेलना पड़ता है. लेकिन हम उनकी मनस्‍थ‍ित‍ि को समझते हैं. नर्से ही हैं जो हर समय पेशेंट के साथ रहती हैं. कोवि‍ड जिस तरह इमोशनली तोड़ता है, उस दौरान भी हम ही उन्‍हें संभालते हैं, इस दौरान हम एक दूसरे की फैमिली बन जाते हैं. जब लोग होपलेस होते हैं तो बुरा भी बोलते हैं, बहुतों ने अपने खोए हैं. बहुत बुरा फेज चल रहा है. वो कहती हैं कि वो दिन मेरे लिए बहुत दुखदायी रहा जब हॉस्‍प‍िटल में रहते मैं कजिन को बेड नहीं दिला पाई.

मनस्‍व‍िनी बताती हैं क‍ि सारे पेशेंट आसपास होते हैं तो सब भूल जाती हैं. इसी दौरान मैंने बच्‍चे को बढ़ते देखा है लेकिन उसे खुलकर गले नहीं लगा पाई लेकिन, फिर भी अफसोस नहीं है क्‍योंकि दूसरों की केयर कर पा रही हूं. पीपीई किट में हर वक्‍त रहना असहज होता है लेकिन लोग जब हममें होप देखते हैं तो बहुत संतुष्‍ट‍ि मिलती है. अब तो बच्‍चे ने खुद को संभाल लिया. वो ढाई साल की हो गई है. भले ही हमें कई बार लोगों का गुस्‍सा भी झेलना पड़ता है. लेकिन हम उनकी मनस्‍थ‍ित‍ि को समझते हैं. नर्से ही हैं जो हर समय पेशेंट के साथ रहती हैं. कोवि‍ड जिस तरह इमोशनली तोड़ता है, उस दौरान भी हम ही उन्‍हें संभालते हैं, इस दौरान हम एक दूसरे की फैमिली बन जाते हैं. जब लोग होपलेस होते हैं तो बुरा भी बोलते हैं, बहुतों ने अपने खोए हैं. बहुत बुरा फेज चल रहा है. वो कहती हैं कि वो दिन मेरे लिए बहुत दुखदायी रहा जब हॉस्‍प‍िटल में रहते मैं कजिन को बेड नहीं दिला पाई.

उन्‍होंने कहा कि कोरोना महामारी का एक बुरा दौर है. ऐसे में सरकार ने नर्सिंग स्‍टूडेंट की ड्यूटी लगाई है. अब इसमें सबसे बड़ी समस्‍या ये है कि नियमानुसार नर्सें 24 घंटे वार्ड में ड्यूटी करती हैं. डॉक्‍टर जब चले जाते हैं तो जो तत्‍काल फैसले लेने होते हैं वो नर्सेज ही लेती हैं. नई स्‍टूडेंट अभी तो पूरी तरह रेडी नहीं हैं. ऐसे में सरकार ने उनको ड्यूटी के ल‍िए छोड़ द‍िया है. एक तरह से ये पेशेंट के लिए भी घातक फैसला है. वो कहती हैं देश में अभी भी लाखों अनइम्‍प्‍लॉयड नर्सेज हैं, उनको न लेके नर्सिंग स्‍टूडेंट से नर्सेज के बदले ड्यूटी लगाना न्‍यायप्रद फैसला नहीं है. हो सकता है कि सरकार द्वारा ऐसे ही आगे वो नर्सेज कम आय में रख ली जाएं. इससे हर साल छह लाख नर्सेज का जॉब खतरे में पड़ेगा.