राहत इंदौरी (rahat-indori) मुशायरे के बादशाह थे, जहां जाते महफिल लूट लेते. उनमें कबीर जैसा फक्कड़पन और उनके जैसी ही निष्कंप दृढ़ता थी. वह खुले मंच से ललकार सकते थे, दहाड़ सकते थे, इशारों- इशारों में नहीं खुलेआम चुनौती दे सकते थे कि आती-जाती सरकारों से उन्हें क्या लेना. उनकी आवाज लोगों की आवाज बन जाती, अल्फाज जेहन में तैरने लगते. वह ऊर्दू के शायर थे लेकिन कोशिश हमेशा यही रहती कि उनकी बात हर किसी के दिल तक पहुंचे. वह खुलकर कहते कि गजलें पहले इशारों में कही जाती थीं लेकिन उनके शेर में ऐसा कुछ नहीं है कि जो समझ में न आए. कोरोना और हार्ट अटैक ने मंगलवार को उनकी जान ले ली, मौत ने उन्हें ‘जमींदार’ कर दिया.
राहत इंदौरी को शेर कहने के तरीके के लिए याद किया जाएगा. उनकी आवाज इतनी बुलंद थी कि मंच पर आते ही लोगों को खामोश कर देती. स्थिर होने में थोड़ा समय लगता लेकिन एक बार शुरू हो जाते तो महफिल उनकी हो जाती. वह शेर पढ़ते तो झूमकर पढ़ते, आसमान की तरफ देखते, ऐसा लगता कि वह अवाम ही नहीं खुदा से बातें कर रहे हैं. वह सत्ता ही नहीं खुदा को भी ललकार रहे हैं. वह इतराते, मुस्कुराते, शर्माते, अलहदा अंदाज में उनकी आवाज तेज होती जो अगले मिसरे में धीमी हो जाती.
कोई एक शब्द होता जिस पर जोर देते, उस शब्द के साथ एक खुस्की आती जिसमें कई तरह के बिंब निकलते जैसे विरोध के, बगावत के, चुनौती के, व्यंग्य के, मौज के, उसके बाद ही लग जाता कि अब कुछ ऐसा कहने वाले हैं जिसमें बड़ा संदेश होगा और आखिरी मिसरे तक आते-आते महफिल उनकी हो जाती. हर शेर के पीछे एक दर्द होता, एक कहानी होती.
उनका एक शेर है
मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना
लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना
हर महफिल में उनसे इस शेर की डिमांड होती थी. उनका अंदाज ऐसा होता कि जो इससे सीधे नहीं जुड़ते उन्हें इस बात का एहसास होता कि आखिर ऐसा कहने की नौबत ही क्यों आई?
मैं मर जाऊं—-कम से कम 3 बार कहते, और शब्दों के टोन में उतार चढ़ाव इतना नपा तुला होता कि सुनने वाला मन में सोचता कि ऐसा क्यों? फिर पूरी बात. ‘मैं मर जाऊं मेरी अलग पहचान लिख देना’ यहां महफिल को समझ में आ जाता कि किसे जवाब दिया जा रहा है. आखिरी वाक्य एक आदेश, एक चुनौती, एक जवाब के तौर पर कहते ‘मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना’. इसके बाद चेहरे पर संतोष का भाव होता, आंखों में चमक होती. जवाब उनका न होकर पूरे जनमानस का हो जाता.
यह शेर क्यों लिखा? इसकी कहानी साझा करते हुए उन्होंने कहा था कि एक बार उनके बारे में अखबार में छपा था कि राहत इंदौरी जेहादी हैं. करवट बदलते उनकी पूरी रात बीती. सुबह की जब अजान हुई तो उन्होंने खुदा से पूछ लिया कि राहत जेहादी कैसे है? इसके बाद उनको यह बात समझ में आई कि राहत जेहादी तो नहीं है लेकिन अलग जरूर है. इसका जवाब देने के लिए उन्होंने लिखा था ‘मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना’. उन्होंने पब्लिक से यह गुजारिश की थी जब वह रुखसत हों तो लोगों की जिम्मेदारी है कि वह उनकी तमन्ना पूरी कर दें. लेकिन उनका इंतकाल ऐसे समय हुआ है कि उनके चाहने वाले भी इकट्ठा नहीं हो पाए.
राहत इंदौरी कहते कि उनके लहजे को गाली, गुस्सा, नारा, शोर और चीख कहा जाता है. लेकिन उनका यह अपना अंदाज था और इससे समझौता करने वाले नहीं थे. ऐसा कहने वालों को जवाब देते हुए उन्होंने लिखा था…
कभी अकेले में मिलकर झंझोड़ दूंगा उसे
जहां-जहां से टूटा है जोड़ दूंगा उसे
मुझे वो छोड़ गया ये कमाल है उसका
इरादा मैंने किया था कि छोड़ दूंगा उसे
पसीने बांटता फिरता है हर तरफ सूरज
कभी जो हाथ लगा तो निचोड़ दूंगा उसे
राहत इंदौरी कहा करते थे कि सरकारें उन्हें पसंद नहीं करतीं, और आती-जाती सरकारों से उन्हें क्या लेना देना. उनका एक मशहूर शेर है…
ऊंचे-ऊंचे दरबारों से क्या लेना !
नंगे भूखे बेचारों से क्या लेना !
अपना मालिक अपना खालिक तो अल्लाह है
आती-जाती सरकारों से क्या लेना!
अपना मालिक आपना खालिक पर उनकी आवाज इतनी बुलंद हो जाती जैसे खुदा खुद उन्हें सुन रहा हो. आती-जाती सरकारों से क्या लेना में एक फकीरी की झलक आती कि इस आदमी को सरकार क्या देगी.
गजल क्या है?
राहत इंदौरी ने कहा था कि 30 साल तक शायरी पढ़ाता रहा लेकिन मैं भी इसे समझ नहीं पाया. जितना समझ पाया उसके मुताबिक गजल पढ़ने के लिए, पढ़ाने के लिए, लिखने के लिए, समझाने के लिए आदमी को थोड़ा दीवाना, थोड़ा सा उत्साही, थोड़ा पागल, थोड़ा आशिक और थोड़ा बहुत बदचलन होना चाहिए. अपना बड़प्पन दिखाते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि वह बड़े शायर इसलिए नहीं हो पाए क्योंकि गजल के लिए जो शर्तें हैं उस पर वह खरे नहीं उतरे.
‘मायानगरी में शब्द मर गए हैं’
राहत इंदौरी ने फिल्मों के लिए गाने लिखे, वहां उन्होंने 20 साल काम किया. मर्डर और मुन्ना भाई एमबीबीएस उन्होंने लिखी. लेकिन बाद में उन्होंने वह नगरी छोड़ दी क्योंकि उनका मानना था कि मायानगरी में शब्द मर गए हैं और वह मुर्दों के साथ जिंदा नहीं रहना चाहते. उनका मानना था कि गानों में शायरी भले न हो शायरी की खुशबू जरूर हो. .
उनके कई शेर आंदोलनों की आवाज बने
2019 में सरकार नागरिकता संशोधन कानून लेकर आई. पूरे देश में इसके खिलाफ आवाज उठी. एक समुदाय विशेष के लोगों को लगा कि यह उनके खिलाफ है, कई जगह धरने प्रदर्शन होने लगे. आंदोलनाकारियों के हाथ में तख्तियां होती थीं जिस पर राहत इंदौरी का मशहूर शेर होता.
‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है,
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं, ज़ाती मकान थोड़ी है,
सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है!
राहत इंदौरी ने कहा था कि जो साहित्य और अदब लिख रहे हैं वह ध्यान रखें कि आपका सोचा हुआ, आपका बोला हुआ, आपका लिखा हुआ एक-एक लफ्ज समाज के काम आए.
आखिर में उनका ये शेर
इस पार के थपेड़ों ने उस पार कर दिया
साहब अफवाह थी कि मेरी तबीयत खराब है
लोगों ने पूछ-पूछकर बीमार कर दिया
दो गज सही मगर ये मेरी मिल्कियत तो है
ऐ मौत तूने मुझे जमींदार कर दिया









