साल 2005 से 2008 के बीच ISI ने लश्कर-ए-तैयबा के साथ मिलकर आतंकवाद को आउटसोर्स करने के लिए एक लोकल फ्रैंचाइजी बनाई. इस फ्रैंचाइजी यानी इंडियन मुजाहिदीन, जिसे भटकल भाइयों रियाज और यासीन ने हेड किया था, उसने भारत में जगह-जगह बम धमाके किए. इस काम को करने के लिए इंडियन मुजाहिदीन ने लोकल लड़कों को रखा, जिन्होंने जयपुर, अहमदाबाद, वाराणसी, दिल्ली और हैदराबाद में बम लगाकर सैंकड़ों लोगों की जान ली.
इन धमाकों का सिलसिला तब थमा जब दिल्ली के बाटला हाउस में एक एनकाउंटर में दो संदिग्ध आतंकी और एक पुलिस अफसर की मौत के बाद इंडियन मुजाहिदीन के आतंकी सेल का भंडाफोड़ हुआ. यही है फिल्म बाटला हाउस की कहानी.
बॉलीवुड ने असल जिंदगी की कहानी की तलाश की और फिल्म बाटला हाउस को पाया. इस फिल्म के नायक हैं दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल के एसीपी संजीव कुमार यादव (जॉन अब्राहम). फिल्म की शुरुआत होती है 19 सितम्बर, 2008 से. एसीपी संजीव और उसकी पत्नी नंदिता की शादीशुदा जिंदगी खत्म होने की कगार पर है. यही वो दिन भी है जब संजीव के साथियो को दिल्ली में इंडियन मुजाहिदीन के एक ठिकाने का पता चलता है.
मुजाहिदीन के दो आतंकी मर गिराए जाते हैं और इसके बदले में स्पेशल सेल के अफसर केके (रवि किशन) को अपनी जान गंवानी पड़ती है. अब संजीव को आने वाली हर बात का सामना अकेले करना है.
जैसे-जैसे इस एनकाउंटर की जांच आगे बढ़ती है, राजनीतिक दल इसमें अपनी टांग अड़ाने लगते हैं. यहां संजीव कुमार अब पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) यानी किसी हादसे के बाद होने वाले स्ट्रेस की समस्या से जूझ रहा है. उसे अपनी शादी को बचाना है, केस को सुलझाना है, इस्लामी कट्टरपंथियों से जूझना है और कोर्टरूम में डिफेन्स के वकील (राजेश शर्मा) को मात देनी है. मेनस्ट्रीम कमर्शियल बॉलीवुड फिल्म बनने के चक्कर में इस फिल्म ने एक बढ़िया पुलिसगिरी वाली फिल्म होने का चांस खो दिया.
बाटला हाउस एक जबरदस्त फिल्म हो सकती थी, लेकिन ये अपनी कमियों के भार तले ही दबकर रह गई.
निर्देशक निखिल आडवाणी ने साल 2013 में फिल्म डी-डे बनाने के बाद अब गैंगस्टर-टेररिस्ट थ्रिलर फिल्म बनाई है. ये फिल्म अच्छी शुरुआत लेती है लेकिन बीच में ही खुद को थका लेती है. हालांकि इसमें आइटम नंबर जरूर दिखाया गया है. इस फिल्म पर रिलीज से पहले विवाद हुआ था. क्योंकि बाटला हाउस केस में साल 2013 में जो वर्डिक्ट सामने आया था उसपर अभी भी कोर्ट में अपील डली हुई है.
इसके चलते फिल्म की शुरुआत काफी लंबी थी और कोर्ट के चीजें ठीकठाक करने के बाद समझ में नहीं आ रहा है कहानी को किस तरह से बदला है. इस फिल्म को जॉन अब्राहम अपने कंधों पर लेकर चल रहा हैं. इसके कारण है फिल्म में एक बढ़िया सपोर्टिंग कास्ट का ना होना. ना पुलिसवाले, ना आतंकी और ना ही वकील.
फिल्म के 5 साल के अंतराल में इनमें से एक भी किरदार विकसित नहीं हुआ. पुलिसवालों के बीच एकता थी ही नहीं. संजीव और नंदिता की शादी में तनाव था लेकिन महसूस नहीं हुआ. संजीव कुमार का स्ट्रेस डिसऑर्डर अकाल्पनिक था और उसकी मेंटल हेल्थ को इतनी जल्दबाजी में दिखाया गया कि साइकायट्रिस्ट से एक ही मुलाकात में वो ठीक भी हो गया.
इससे भी ज्यादा बड़ी बात ये कि फिल्म में संजीव कुमार की नौकरी या विश्वसनीयता खोने का खतरा कभी था ही नहीं, क्योंकि फिल्म अतीत में हुई बातों पर तिकी हुई है. रोशोमन इफ़ेक्ट को फिल्म के अंत में दिखाया गया है. तब तक सभी को पता था कि फिल्म में आखिर क्या होने वाला है.