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यूपी पंचायत चुनाव: आरक्षण से बदले सियासी समीकरण, नेताओं के परिवारों के हाथ से फिसलेगी कुर्सी

उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव में आरक्षण ने ऐसा समीकरण सेट कर दिया है कि चुनिंदा सीटों से हमेशा चुनकर आ जाने वाले नेताओं को इस बार या तो घर बैठना होगा या फिर किसी अन्य दूसरी सीट पर मशक्कत करनी होगी. सूबे में इस बार चक्रानुसार की गई आरक्षण प्रक्रिया के चलते सैकड़ों नेताओं के चुनाव लड़ने के अरमानों पर फिर गया है, क्योंकि इस बार उनकी सीट आरक्षित हो गई है.

उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों के लिए आरक्षण की सूची सभी जिलों में जारी कर दी गई हैं. सूबे में इस बार चक्रानुसार की गई आरक्षण प्रक्रिया के चलते सैकड़ों नेताओं के चुनाव लड़ने के अरमानों पर फिर गया है, क्योंकि इस बार उनकी आरक्षित हो गई है. इसी के चलते सियासी दिग्गजों का राजनीतिक गणित पूरी तरह से गड़बड़ा गया है. आरक्षण ने ऐसा समीकरण सेट कर दिया है कि चुनिंदा सीटों से हमेशा चुनकर आ जाने वाले नेताओं को इस बार या तो घर बैठना होगा या फिर किसी अन्य दूसरी सीट पर मशक्कत करनी होगी.

सूबे में जिला पंचायत, क्षेत्र पंचायत, ग्राम पंचायत और ब्लॉक प्रमुख की सीटों का आरक्षण ऐसा हुआ है, जिसके चलते सैकड़ों की संख्या में सीटों की स्थिति बदल गई है. इससे सबसे ज्यादा मुश्किल उन लोगों को हुई है, जो लंबे समय से एक ही सीट से चुने जाते रहे हैं. ऐसे में कई दावेदारों को तगड़ा झटका लगा है. आरक्षण के चलते कद्दावर नेताओं को इस बार खुद के बजाय अपने किसी समर्थक पर दांव खेलना होगा. इसके अलावा कई नेताओं को तो अपनी परंपरागत सीट छोड़कर नई सियासी जमीन तलाशने के लिए पसीना बहाना पड़ेगा.

सैफई में ब्लॉक प्रमुख-प्रधान दलित होगा

सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के गृहक्षेत्र सैफई ब्लॉक प्रमुख की सीट इस बार अनुसूचित जाति महिला के लिए आरक्षित हो गई है, जिसके चलते मुलायम परिवार को तगड़ा झटका लगा है. साल 1995 में सैफई ब्लॉक बना है, जिसके बाद से ब्लाक प्रमुख की कुर्सी पर मुलायम सिंह के परिवार का कब्जा रहा है, लेकिन इस बार उनके परिवार से बाहर कोई सदस्य इस कुर्सी पर काबिज होगा.

ब्लॉक प्रमुख की सीट की तरह सैफई प्रधान का पद भी एससी के लिए आरक्षित हो गया है, जिसके चलते इस बार मुलायम सिंह यादव के बचपन के साथी दर्शन यादव के परिवार के हाथों से ग्राम प्रधानी की कमान निकल जाएगी. पहली बार वह 1972 में सैफई के ग्राम प्रधान बने थे, तब से लेकर पिछले चुनाव तक यानी लगातार 48 साल तक वह प्रधान रहे. अक्टूबर 2020 में उनके निधन के बाद जिलाधिकारी ने उनके परिवार की बहू को प्रधान पद की जिम्मेदारी सौंप दी थी. हालांकि, इस बार यह सीट मुलायम के मित्र के परिवार के हाथ से बाहर निकल जाएगी.

आरक्षण प्रक्रिया से बदल गए समीकरण

बता दें कि प्रदेश सरकार ने नए सिरे से पंचायत चुनाव की आरक्षण की प्रक्रिया को लागू किया और जो सीटें कभी एससी के लिए आरक्षित नहीं रही हैं उनको प्राथमिकता पर एससी के लिए आरक्षित कराने का फरमान जारी किया था. इसी फरमान की जद में आकर सैफई ब्लॉक प्रमुख और ग्राम पंयाचत सहित सूबे की तमाम सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित की गई हैं, जिसके चलते तमाम नेताओं की जिला पंचायत, ग्राम पंचायत और ब्लॉक प्रमुख सीट पर कायम सियासी वर्चस्व इस बार टूट गया है.

यूपी में पंचायत चुनाव के आरक्षण को तय करने का पैमाना 1995 से तय किया गया है, जिसके चलते पिछले 25 सालों में सूबे की जो भी सीटें आरक्षण दायरे में नहीं आई हैं, उन्हें प्राथमिक आधार पर आरक्षण के दायरे में लिया गया है. साल 2015 के चुनाव में जो सीटें सामान्य थीं उनमें से ज्यादातर की स्थिति इस बार बदल गई है और इस बार वो सीटें आरक्षण के दायरे में आ गई हैं. रोटेशन के हिसाब से वे या तो एससी कोटे में चली गई हैं या फिर ओबीसी में. इसके अलावा जो सीटें इन दो कैटेगरी से बच गई हैं, वो सामान्य (महिला) कैटेगरी में चली गई हैं.

मेरठ में टूटेगा सियासी वर्चस्व

मेरठ के जिले के रोहटा ब्लॉक प्रमुख की सीट अनसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गई हैं, जिसके चलते बिजेंद्र जिंजोखर को सियासी तौर पर झटका लगा है. रोहटा ब्लॉक प्रमुख पद पर भी इस परिवार का लंबे समय से कब्जा रहा है. साल 2010 में बिजेंद्र प्रमुख खुद ब्लॉक प्रमुख बने तो साल 2015 में महिला पद आरक्षित होने पर उन्होंने अपने परिवार की महिला को प्रमुख निर्वाचित कराया था, लेकिन इस बार उनके परिवार के बाहर का कोई ब्लॉक प्रमुख की कुर्सी पर काबिज होगा. ऐसे ही मेरठ के दौराला ब्लॉक प्रमुख सीट पर आरएलडी नेता राहुल देव का परिवार हावी रहा है, लेकिन इस बार यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गई है.

हरदोई का अग्रवाल परिवार

हरदोई की सियासत में पूर्व सांसद नरेश अग्रवाल की सियासी तूती बोलती है. दो दशक से हरदोई के जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर नरेश अग्रवाल के भाई मुकेश अग्रवाल काबिज हैं, लेकिन इस बार हरदोई सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गई है, जिसके अग्रवाल परिवार को सियासी तौर पर झटका लगा है. ऐसे ही रायबरेली की जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर पिछले दस सालों से एमएलसी दिनेश सिंह के परिवार का कब्जा रहा है, लेकिन इस बार यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गई है.

वहीं, बागपत जिला 1997 में बनने से लेकर अब तक 23 सालों में जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर पिछड़ा वर्ग यानी यादव व जाट बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले शगुन यादव, ओमकार यादव, रेनू धामा व योगेश धामा रहे. बागपत के सियासी इतिहास में पहली बार जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी अनुसूचित जाति की महिला के लिए आरक्षित होगी. ऐसे ही शामली की जिला पंचायत अध्यक्ष की सीट अनुसूचित जाति की महिला के लिए पहली बार आरक्षित की गई है.

रायबरेली में बदल गए गांव के समीकरण

आरक्षण की लिस्ट आते ही रायबरेली के ऊंचाहार, कंदरावा, कैथवल, उसरैना ग्राम पंचायत सीटों पर मातम पसरा है. ये सभी ही सीट पिछले चुनाव में जनरल थीं लेकिन, इस बार रिजर्व हो गई हैं. ऐसे ही रायबरेली के रोहनिया ब्लॉक की दोनों जिला पंचायत सीटें एससी के लिए आरक्षित हो गई हैं, जिससे सपा नेता व पूर्व मंत्री मनोज पांडेय को झटका लगा है. यहां से पिछली बार उन्होंने अपने भाई को चुनाव लड़ाया था और इस बार वो अपने समर्थक को मैदान में उतारने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन अब आरक्षण के चलते उनके अरमानों पर पानी फिर गया है. ऐसे ही रायबरेली जिले की डीह ब्लॉक प्रमुख सीट पर लंबे से पूर्व विधायक गजाधर सिंह के परिवार का कब्जा रहा है, लेकिन इस बार यह सीट रिजर्व हो गई है,

रिजर्व होने के बाद नेता तलाश रहे अपना विकल्प

सूबे में ऐसे सभी लोग जो सीट के रिजर्व हो जाने से चुनाव से बाहर हो गए हैं वे दूसरे विकल्प की तलाश में लग गए हैं. हमेशा से पंचायत के चुनाव में ऐसा होने पर अपने किसी खास आदमी को चुनाव लड़वाया जाता रहा है. इस बार भी बस यही विकल्प बचा है. रिजर्व कोटे से आने वाला कोई व्यक्ति किसी भी कैटेगरी की सीट पर चुनाव लड़ सकता है लेकिन, सामान्य वर्ग का प्रत्याशी सिर्फ सामान्य सीट पर ही चुनाव लड़ सकता है.