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वंदे मातरम, जिंदाबाद, भारत माता की जय…नरेंद्र मोदी स्टेडियम के संदेश

भारत जीत गया. इंग्लैंड हार गया. लेकिन खेल के दौरान जो देखने को मिला, उसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं और लोग अगर उसे राजनीति के चश्मे से देखें तो कहानी खेल के मैदान से बाहर जाती नज़र आएगी.

क्रिकेट भारतीय जनमानस की रगों में हैं. तब भी था जब भारत विश्वकप जीता था और यूपीए के पतन की कहानी शुरू हो गई थी. खेल का रोमांच और जीत का अति-उत्साह जब झंडा पकड़ लेता है तो वो केवल खेल नहीं रह जाता… उसकी सीमारेखा खेल के बाहर राजनीति से जनधारणा तक पैर पसारती है. चुनाव का मौसम हो तो खेल मैदान से बाहर तक गेंद उछाल सकता है.

रविवार की शाम भारत का मुकाबला इंग्लैंड की टीम से था. टी-20 के इस मैच में इंग्लैंड ने पहले बल्लेबाज़ी करके 164 रन बनाए. भारत ने इस स्कोर का पीछा करते हुए 18वें ओवर में ही इंग्लैंड को हरा दिया. ये मैच अहमदाबाद (मोटेरा) के जिस स्टेडियम में खेला गया उसे अभी 24 फरवरी को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर किया गया है.

नरेंद्र मोदी स्टेडियम में भारत जब इंग्लैंड की टीम को रुला रहा था, दर्शकों की भीड़ वंदेमातरम, ज़िंदाबाद और भारत माता की जय जैसे नारे लगा रही थी. इसमें कोई बुराई नहीं. भारत के लिए यह लगान फिल्म जैसी घड़ी थी. जीत एक जुनून बन चुकी थी. ईशान किशन और कोहली के बल्ले की करतब भीड़ का जोश और बढ़ा रही थी.

लेकिन संदेश केवल नतीजे और उत्साह तक सीमित नहीं होता. उसके और मायने भी समझे जा सकते हैं. नरेंद्र मोदी स्टेडियम का यह मैच पूरे भारत सहित बंगाल, तमिलनाडु और केरल तक छाया हुआ था. फिलहाल असम और पुड्डुचेरी समेत ये पांचों राज्य विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार के हाईफीवर में हैं.

हालांकि देश भी एक हाईफीवर में है. यह बुखार कोरोना का है. इस महामारी में दुनिया के तमाम क्रिकेट खेलने वाले देश अपने दर्शकों को महामारी से बचाने के लिए मैदान तक आने से रोकने के लिए प्रतिबद्ध हैं. लेकिन भारत अपने सबसे बड़े मैदान पर मैच करा रहा है और दर्शकों की मौजूदगी खिलाड़ियों में जोश भर रही है.

नारों के निहितार्थ

ड्रोन कैमरे से लिए जाते टॉप-व्यू शॉट्स, फ्लैशलाइट से चियरअप करते दर्शक और नारों का शोर केवल मैदान पर टीम के हौसले के लिए हो तो सकते हैं लेकिन इनका असर मैदान के बाहर भी जाना लाज़मी है. वह संदेश है एक मॉडल का. गुजरात मॉडल का. स्टेडियम, खेल, जीत, रोमांच, राष्ट्रवाद और गर्व मिलकर एक संदेश तो देते ही हैं. खासकर ऐसे देश में जिसके पास सबसे ज़्यादा युवा आबादी हो, इस संदेश या उससे मिलते-जुलते विचार के प्रभाव में आना स्वाभाविक है.

रविवार शाम के मैच में नरेंद्र मोदी स्टेडियम में यही संदेश गूंजता दिखा. यह संदेश सौरभ गांगुली के बंगाल तक भी पहुंचा होगा और चेन्नई सुपरकिंग्स के तमिलनाडु तक भी. विशालता, भव्यता, सफलता मिलकर एक बिंब बनाती ही हैं और ये बिंब केवल खेल तक सोच और विचार को प्रभावित नहीं करते.

राजनीति में जब चुनाव का मौसम होता है तो छोटी-छोटी बातें भी बड़े संदेश लेकर लोगों के बीच धारणा बनाने-बिगाड़ने का काम करती हैं. किसी के पैर में बंधा पलस्तर या किसी स्टेडियम से गूंजता हुआ जयघोष जनमानस की चेतना को निर्णायक परिणतियों तक ले जाने में इस्तेमाल हो सकते हैं. रविवार का मैच वैसे तो क्रिकेट का एक खेल था, लेकिन यह खेल दरअसल खेला होबे से खेला शेष तक के नारों तक अपने निहितार्थ पसारे हुए है.

ऐसा नहीं है कि नारे अभी लगने लगे हैं. 1990 के दशक को याद करें तो भारत बनाम पाकिस्तान की क्रिकेट वाली लड़ाई को हमने नारों पर चढ़कर उन्माद में बदलते देखा है. पर 21वीं सदी की शुरुआत में ये रुक गया. हाल के कुछ वर्षों में ये फिर शुरू हुआ है. कोरोना काल के बाद ये पहला मौका है जब क्रिकेट भी है, दर्शक भी हैं और नारे भी. इस जोश का एक रंग है. और ये रंग केवल खेल तक नहीं सीमित है. इन नारों के निहितार्थ मैदान के बाहर भी असर कायम करने की क्षमता रखते हैं.