बहुत से काम हैं। आओ, बंजर ज़मीन पर घास फैला दें। पेड लगाएँ। डालियों को फूलों से महका दें। पहाड़ों को जरा क़रीने से लगाएँ। उन पर चाँद लटका दें। ज़रा आओ तो सही सितारों को रोशन कर दें। हवाओं को गति दे दें। फुदकते पत्थरों को पंख दे दें। होंठों को मुस्कराहट, आँखों को चमक दे दें। सड़क पर डोलती परछाइयों को ज़िंदगी दे दें। फ़िज़ा ख़ामोश है। तुम आओ तो सही! तुम आओ तो दुनिया हमारी हो जाए! मैं इतने सब काम अकेले नहीं कर सकता।
सत्ता पक्ष और विपक्ष इन दिनों छोटे- छोटे राजनीतिक दलों को यही प्रलोभन दे रहे हैं। इसी तरह ललचा रहे हैं। कहने को देश में अभी छह राष्ट्रीय पार्टियाँ, 54 राज्य स्तरीय पार्टियाँ और 2,597 असंगठित पार्टियाँ हैं। असंगठित पार्टियों को छोड़ दिया जाए तो कुल 60 राजनीतिक दल होते हैं। विपक्ष दावा कर रहा है कि उसके साथ 26 पार्टियाँ हैं और सत्ता पक्ष का दावा 38 पार्टियों का है। हक़ीक़त से ज़्यादा पार्टियाँ कहाँ से आ गईं, कोई नहीं जानता। यह सब वैसा ही है जैसे किसी पोलिंग बूथ पर हज़ार वोटर होते हैं और वहाँ कभी- कभी 1100 वोट पड़ जाते हैं।
बहरहाल, जिस तरह बादल दो गीले पैरों पर चलते- चलते, सामने वाली पहाड़ी के कंधों पर बैठकर, नीचे बिखरी धूप चुना करते हैं, वैसे ही सत्ता पक्ष और विपक्ष इन दिनों बड़े प्यार से अपने समर्थक दल चुनने में लगे हुए हैं। हालाँकि जिस तरह रोटी पृथ्वी की तरह गोल बेली जाती है, जिस तरह सन्नाटे शब्दों को बेलते हैं और भाटे समंदर, वैसे ये बड़े राजनीतिक दल क्या बेल पाएँगे, क्या और कितना उन्हें पका पाएँगे, अभी से कहा तो नहीं जा सकता, लेकिन इतना यक़ीन ज़रूर है कि कुछ न कुछ पक ज़रूर रहा है।
हो सकता है पक्ष- विपक्ष के दो पाटों के बीच कुछ न कुछ पिस भी रहा हो लेकिन वो जो पक रहा है, वो जो पिस रहा है, वो कुछ न कुछ सानता हुआ, कुछ न कुछ गूँथता हुआ खुद ही खुद को मथ रहा है। राजनीति यही है। मरो। गढ़ो। कुछ भी करो, लेकिन बोलो तभी, जब आपके बोल की भी कोई क़ीमत हो। क्योंकि चुप रहने से बड़ी कोई दवा है नहीं होती।
हालाँकि नाम में क्या रक्खा है, लेकिन विपक्ष ने बेंगलुरु बैठक में फ़िलहाल 26 राजनीतिक दलों वाले अपने संयुक्त संगठन का नाम इंडिया (INDIA) रख लिया है। दूसरी तरफ एनडीए जिसका दावा अडतीस दलों का साथ होने का है, कह सकता है कि ये सब अंग्रेज हैं। इंडिया वाले। हम भारत के वीर सिपाही हैं। हम ही भारत माता के सच्चे सपूत हैं। सही मायने में, हम ही भारतीय हैं। हालाँकि विपक्षी नेताओं के पास इसका भी कोई न कोई जवाब ज़रूर होगा, लेकिन फ़िलहाल सब कुछ मौन के हवाले हैं।
ख़ैर, चुनाव जीतने और अपने- अपने पक्ष में वोट डलवाने की इस पूरी प्रक्रिया में जिसे वोट डालना है, वो आम आदमी कहाँ है, इसकी परवाह शायद किसी को नहीं है। आम आदमी की हालत तो अंधेरे के उन क़ैदियों की तरह हैं जिन्हें आसमाँ के सारे सितारे बुझ जाने और दिन सिर पर चढ़ आने के बाद भी तब तक पता नहीं होता कि सुबह हो गई है जब तक ऊपर से हुक्म न आ जाए! वैसे कोई दल या राजनीतिक दल हम आम लोगों की परवाह करे भी क्यों? क्योंकि हम तो अपने ही सिरहाने बैठकर अपने को ही गहरी नींद में सोते हुए देखने के आदी हो चुके हैं।हमारे ज़ख़्मी पाँवों को जीवन संघर्ष का एक लम्बा रास्ता निगलता जा रहा है। हमारी आँखें किसी नाव की तरह अंधेरे का गहरा महासागर पार कर रही हैं। …और इस राह में पत्थर- भाटे नहीं, बल्कि हमारी शक्ल के चकनाचूर टुकड़े बिखरे पड़े हैं।
दरअसल, हमारा मुँह भी एक तहख़ाना है। अंधेरी खोह की तरह। शब्द बाहर आ ही नहीं पा रहे हैं। जाने कब से आम आदमी के आसपास ये चुप्पी छाई हुई है। इस चुप्पी को तोड़ने की ज़रूरत है। बोलना ज़रूरी है। अभी और इसी वक्त, वर्ना ये राजनीति हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। इसका तो स्वभाव है – ये आम आदमी का सिर काट कर उसे हैट ख़रीदकर देती है। कान काटकर रेडियो थमाती है और हाथ काटकर रिस्ट वॉच। पाँव काटकर जूतों की जोड़ी देती है और हमारे खुद के बदले में एक सुंदर घर! जैसे कोल्हू का बैल होता है। दिनभर में कितने मील चलता है। फिर भी वहीं का वहीं। उसी तरह आम आदमी को भी
बैल बनाकर जोत दिया है खाँचों में। रातें लम्बी होती जा रही हैं। साँसें सिकुड़ रही हैं। जैसे भभकती आग में किसी ने अभ्रक झोंक दिया हो! ख़ैर, ये पक्ष- विपक्ष का झगड़ा है। चलता रहेगा। लोकसभा चुनाव की तारीख़ों के ऐलान तक। सत्ता पक्ष, विपक्ष को तोड़ने की कोशिश करता रहेगा। विपक्ष, सरकार को उलाहने और उसके हर सच को झूठ साबित करने की कोशिश करता रहेगा। ज़िम्मेदारी हमारी है। हम आम लोगों की, कि सच और झूठ को कैसे पहचानें। क्या उसे संघर्ष की भट्टी में तपाकर देखें? या रोटियाँ पका रहे किसी चूल्हे की आँच में डाल कर उसका परीक्षण करें?