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भारतीय काल गणना और नव संवत्सर वर्ष प्रतिपदा का आयुर्वेदीय चिंतन : डॉ.रामतीर्थ शर्मा

कलयति सर्वाणि भूतानि : अर्थात काल संपूर्ण ब्रह्मांड को, सृष्टि को खा जाता है। इस काल का सूक्ष्मतम अंश परमाणु है और महानतम अंश ब्रह्मा। जैसे आधुनिक काल के अनुसार सूक्ष्मतम अंश सेकंड है और महानतम अंश शताब्दी।

ज्योतिर्विदाभरण में अनुसार कलियुग में 6 व्यक्तियों ने संवत चलाए। यथा- युधिष्ठर, विक्रम, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, नागार्जुन, कल्की। इससे पहले सप्तऋषियों ने संवत चलाए थे जिनके आधार पर ही बाद के लोगों ने अपडेट किया। इसमें से सबसे ज्यादा सही विक्रम है। कालगणना में क्रमश: प्रहर, दिन-रात, पक्ष, अयन, संवत्सर, दिव्यवर्ष, मन्वन्तर, युग, कल्प और ब्रह्मा की गणना की जाती है।

चक्रीय अवधारणा के अतर्गत ही हिन्दुओं ने काल को कल्प, मन्वंतर, युग (सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग) आदि में विभाजित किया जिनका अविर्भाव बार-बार होता है, जो जाकर पुन: लौटते हैं। चक्रीय का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि सूर्य उदय और अस्त होता है और फिर से वह उदय होता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि समय भी चक्रीय है। सिर्फ घटनाक्रम चक्रीय है। इसकी पुनरावृत्ति होती रहती है लेकिन पुनरावृत्ति में भी वह पहले जैसी नहीं होती है।

चक्रीय काल-अवधारणा के अंतर्गत आज ब्रह्मा की आयु के दूसरे खंड में, श्वेतावाराह कल्प में, वैवस्वत मन्वंर में अट्ठाईसवां कलियुग चल रहा है। इस कलियुग की समाप्ति के पश्चात चक्रीय नियम में पुन: सतयुग आएगा। हिन्दू कालगणना के अनुसार धरती पर जीवन की शुरुआत आज से लगभग 200 करोड़ वर्ष पूर्व हुई थी।

यदि दुनिया में कोई-सा वैज्ञानिक कैलेंडर या समय मापन-निर्धारण की पद्धति है तो वह है भारत के प्राचीन वैदिक ऋषियों की पद्धति। इसी पद्धति को ईरानी और यूनानियों ने अपनाया और इसे ही बाद में अरब और मिस्र के वासियों ने अपनाया। किंतु कालांतर में अन्य देशों में बदलते धर्म और संस्कृतियों के प्रचलन ने इसके स्वरूप में परिवर्तन कर दिया गया। उस काल में दुनियाभर के कैलेंडर में मार्च का महीना प्रथम महीना होता था, लेकिन उन सभी कैलेंडरों को हटाकर आजकल अंग्रेजी कैलेंडर प्रचलन में है। अंग्रेजों ने लगभग पूरी दुनिया पर राज किया। ऐसे में उन्होंने अपनी भाषा, धर्म, संस्कृति सहित ईसा के कैलेंडर को भी पूरी दुनिया पर लाद दिया।

वैदिक ऋषियों ने इस तरह का कैलेंडर या पंचांग बनाया, जो पूर्णत: वैज्ञानिक हो। उससे धरती और ब्रह्मांड का समय निर्धारण किया जा सकता हो। धरती का समय निर्माण अर्थात कि धरती पर इस वक्त कितना समय बीत चुका है और बीत रहा है और ब्रह्मांड अर्थात अन्य ग्रहों पर उनके जन्म से लेकर अब तक कितना समय हो चुका है- यह निर्धारण करने के लिए उन्होंने एक सटीक ‍समय मापन पद्धति विकसित की थी। आश्चर्य है कि आज के वैज्ञानिक यह कहते हैं कि ऋषियों की यह समय मापन पद्धति आज के खगोल विज्ञान से मिलती-जुलती है, जबकि उन्हें कहना यह चाहिए कि ऋषियों ने हमसे हजारों वर्ष पहले ही एक वैज्ञानिक समय मापन पद्धति खोज ली थी।

ऋषियों ने इसके लिए सौरमास, चंद्रमास और नक्षत्रमास की गणना की और सभी को मिलाकर धरती का समय निर्धारण करते हुए संपूर्ण ब्रह्मांड का समय भी निर्धारण कर उसकी आयु का मान निकाला। जैसे कि मनुष्य की आयु प्राकृतिक रूप से 120 वर्ष होती है उसी तरह धरती और सूर्य की भी आयु निर्धारित है। जो जन्मा है वह मरेगा। ऐसे में वैदिक ऋषियों की समय मापन की पद्धति से हमें जहां समय का ज्ञान होता है वहीं हमें सभी जीव, जंतु, वृक्ष, मानव, ग्रह और नक्षत्रों की आयु का भी ज्ञान होता है।

ऋषियों ने सूक्ष्मतम से लेकर वृहत्तम माप, जो सामान्य दिन-रात से लेकर 8 अरब 64 करोड़ वर्ष के ब्रह्मा के दिन-रात तक की गणना की है, जो आधुनिक खगोलीय मापों के निकट है। यह गणना पृथ्वी व सूर्य की उम्र से भी अधिक है तथा ऋषियों के पास और भी लंबी गणना के माप हैं। आओ जानते हैं इस गणना का रहस्य…

*1 परमाणु = काल की सबसे सूक्ष्मतम अवस्था
*2 परमाणु = 1 अणु
*3 अणु = 1 त्रसरेणु
*3 त्रसरेणु = 1 त्रुटि
*10 ‍त्रुटि = 1 प्राण
*10 प्राण = 1 वेध
*3 वेध = 1 लव या 60 रेणु
*3 लव = 1 निमेष
*1 निमेष = 1 पलक झपकने का समय
*2 निमेष = 1 विपल (60 विपल एक पल होता है)
*3 निमेष = 1 क्षण
*5 निमेष = 2 सही 1 बटा 2 त्रुटि
*2 सही 1 बटा 2 त्रुटि = 1 सेकंड या 1 लीक्षक से कुछ कम।
*20 निमेष = 10 विपल, एक प्राण या 4 सेकंड
*5 क्षण = 1 काष्ठा
*15 काष्ठा = 1 दंड, 1 लघु, 1 नाड़ी या 24 मिनट
*2 दंड = 1 मुहूर्त
*15 लघु = 1 घटी=1 नाड़ी
*1 घटी = 24 मिनट, 60 पल या एक नाड़ी
*3 मुहूर्त = 1 प्रहर
*2 घटी = 1 मुहूर्त= 48 मिनट
*1 प्रहर = 1 याम
*60 घटी = 1 अहोरात्र (दिन-रात)
*15 दिन-रात = 1 पक्ष
*2 पक्ष = 1 मास (पितरों का एक दिन-रात)
*कृष्ण पक्ष = पितरों का एक दिन और शुक्ल पक्ष = पितरों की एक रात।
*2 मास = 1 ऋतु
*3 ऋतु = 6 मास
*6 मास = 1 अयन (देवताओं का एक दिन-रात)
*2 अयन = 1 वर्ष
*उत्तरायन = देवताओं का दिन और दक्षिणायन = देवताओं की रात।
*मानवों का एक वर्ष = देवताओं का एक दिन जिसे दिव्य दिन कहते हैं।
*1 वर्ष = 1 संवत्सर=1 अब्द
*10 अब्द = 1 दशाब्द
*100 अब्द = शताब्द
*360 वर्ष = 1 दिव्य वर्ष अर्थात देवताओं का 1 वर्ष।
एक दिव्य वर्ष से ब्रह्मा के दिन-रात तक…

* 12,000 दिव्य वर्ष = एक महायुग (चारों युगों को मिलाकर एक महायुग)
सतयुग : 4000 देवता वर्ष (सत्रह लाख अट्ठाईस हजार मानव वर्ष)
त्रेतायुग : 3000 देवता वर्ष (बारह लाख छियानवे हजार मानव वर्ष)
द्वापरयुग : 2000 देवता वर्ष (आठ लाख चौसठ हजार मानव वर्ष)
कलियुग : 1000 देवता वर्ष (चार लाख ब्तीसहजतार मानव वर्ष)

* 71 महायुग = 1 मन्वंतर (लगभग 30,84,48,000 मानव वर्ष बाद प्रलय काल)
* चौदह मन्वंतर = एक कल्प।
* एक कल्प = ब्रह्मा का एक दिन। (ब्रह्मा का एक दिन बीतने के बाद महाप्रलय होती है और फिर इतनी ही लंबी रात्रि होती है)। इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु 100 वर्ष होती है। उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।
* ब्रह्मा का वर्ष यानी 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष। ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्मांड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,00,00,00,000 वर्ष)

मन्वंतर की अवधि : विष्णु पुराण के अनुसार मन्वंतर की अवधि 71 चतुर्युगी के बराबर होती है। इसके अलावा कुछ अतिरिक्त वर्ष भी जोड़े जाते हैं। एक मन्वंतर = 71 चतुर्युगी = 8,52,000 दिव्य वर्ष = 30,67,20,000 मानव वर्ष।

मन्वंतर काल का मान : वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मंडल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मंडल का चक्कर लगा रहे हैं।

सूर्य मंडल के परमेष्ठी मंडल (आकाश गंगा) के केंद्र का चक्र पूरा होने पर उसे मन्वंतर काल कहा गया। इसका माप है 30,67,20,000 (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष)। एक से दूसरे मन्वंतर के बीच 1 संध्यांश सतयुग के बराबर होता है अत: संध्यांश सहित मन्वंतर का माप हुआ 30 करोड़ 84 लाख 48 हजार वर्ष। आधुनिक मान के अनुसार सूर्य 25 से 27 करोड़ वर्ष में आकाश गंगा के केंद्र का चक्र पूरा करता है।

कल्प का मान : परमेष्ठी मंडल स्वायम्भू मंडल का परिभ्रमण कर रहा है यानी आकाशगंगा अपने से ऊपर वाली आकाशगंगा का चक्कर लगा रही है। इस काल को कल्प कहा गया यानी इसकी माप है 4 अरब 32 करोड़ वर्ष (4,32,00,00,000)। इसे ब्रह्मा का 1 दिन कहा गया। जितना बड़ा दिन, उतनी बड़ी रात अत: ब्रह्मा का अहोरात्र यानी 864 करोड़ वर्ष हुआ।

इस कल्प में 6 मन्वंतर अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब 7वां मन्वंतर काल चल रहा है जिसे वैवस्वत: मनु की संतानों का काल माना जाता है। 27वां चतुर्युगी बीत चुका है। वर्तमान में यह 28वें चतुर्युगी का कृतयुग बीत चुका है और यह कलियुग चल रहा है। यह कलियुग ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध में श्‍वेतवराह नाम के कल्प में और वैवस्वत मनु के मन्वंतर में चल रहा है। इसका प्रथम चरण ही चल रहा है।
अगले पन्ने पर मन्वंतर, कल्प और संवत्सरों के नाम…

30 कल्प : श्‍वेत, नीललोहित, वामदेव, रथनतारा, रौरव, देवा, वृत, कंद्रप, साध्य, ईशान, तमाह, सारस्वत, उडान, गरूढ़, कुर्म, नरसिंह, समान, आग्नेय, सोम, मानव, तत्पुमन, वैकुंठ, लक्ष्मी, अघोर, वराह, वैराज, गौरी, महेश्वर, पितृ।

14 मन्वंतर : स्वायम्भुव, स्वारो‍‍चिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, (10) ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि तथा इन्द्रसावर्णि।

आयुर्वेदीय काल गणना
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उक्त संवतसरों को आयुर्वेदिक दृष्टि से दो अयन में विभाजित किया गया है। उत्तरायण एवं दक्षिणायन। उत्तरायण का अर्थ है सूर्य की गति मकर राशि से और कर्क राशि की और होना।वा

स्तव में सूर्य स्थिर रहता है तथा पृथ्वी की परिक्रमा के कारण से सूर्य की किरण जब मकर राशि से उत्तरी गोलार्ध की ओर चलना शुरू होती हैं और वह कर्क रेखा की ओर आती है तो किरणों की इस गति को उपाधि भेद से सूर्य की गति कहा जाता है। इस काल को आदान काल भी कहा जाता है। इसमें तीन ऋतु होती हैं।

शिशिर,बसंत और ग्रीष्म

इस काल में सूर्य की किरण उत्तरोत्तर तीव्रता को प्राप्त होती जाती हैं, जिसके कारण पृथ्वी पर तापमान की वृद्धि होती है। इसीलिए आदान काल को आग्नेय काल भी कहा जाता है। इसमें वायु में,रसों में,प्राणधारियों में और वनस्पतियों में भी रुक्षता बढ़ती है। संसार के समस्त प्राणधारियों में बल का क्षय भी उत्तरोत्तर बढ़ता चला जाता है।
ग्रीष्म ऋतु में शरीर का बाल सबसे कम होता है।
बसंत ऋतु में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में वर्ष प्रतिपदा आती है। प्रतिपदा शुक्ल पक्ष का प्रथम तिथि है वह संवत्सर का प्रारंभ माना जाता है।
एक संवत्सर में 12 महीने होते हैं।
चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ,आषाढ़,श्रावण, भाद्रपद,आश्विन,कार्तिक, मार्गशीर्ष, माघ और फाल्गुन।
दो महीने मिलाकर एक ऋतु बनाते हैं।
चैत्र वैशाख –बसंत
ज्येष्ठ आषाढ़–ग्रीष्म ऋतु
श्रावण भाद्रपद–वर्षा ऋतु
आश्विन कार्तिक–शरद ऋतु
मार्गशीर्ष पौष– हेमंत ऋतु
माघ फाल्गुन–शिशिर ऋतु का निर्माण करते हैं।

ऋतु एवं दोषों का संचय प्रकोप प्रशमन का सिद्धांत
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शरीर में तीन दोष होते हैं वात पित्त और कफ। उक्त तीनों दोष वर्ष में विभिन्न ऋतुओं में अपने गुणों को प्राप्त कर संचय एवं प्रकोप को तथा विपरीत गुणों को प्राप्त कर शमन को प्राप्त होते हैं।
हेमंत और शिशिर ठंडी ऋतु होती है।जिसमें कफ का संचय शीत गुण के कारण से होता है।बसंत ऋतु में आदान काल के कारण से सूर्य की किरण तेज होती है जिसके कारण से उष्ण गुण की वृद्धि होती है। इस उष्ण गुण के कारण विभिन्न स्रोतों में जमा हुआ कफ पिघल कर बाहर आता है तथा कफ का प्रकोप हो जाता है। इसी कारण बसंत ऋतु में विभिन्न प्रकार के कफज व्याधियों यथा जुकाम,खांसी,फ्लू आदि की उत्पत्ति होती है। वर्तमान समय में जितने भी वायरल फीवर,फ्लू, कोविड,बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू, चिकनगुनिया आदि वायरस प्रकोपित हो रहे हैं वह इसी वसंत ऋतु में कफ के प्रकोप के कारण से होते हैं।अतःआयुर्वेद में इस ऋतु में शोधन करने का निर्देश दिया जाता है।ये शोधन वमन कर्म द्वारा होता है।जिसके कारण कफ का शोधन होकर कफ से होने वाले समस्त विकारों का शमन होता है।
वसंत ऋतु के पश्चात ग्रीष्म ऋतु में वायु में और वातावरण में उष्णता, रूक्षता,लघुता और चल गुण की वृद्धि होने के कारण से कफ का शमन हो जाता है। वही रुक्ष और लघु गुण के कारण वायु का संचय भी प्रारंभ हो जाता है।

वर्ष प्रतिपदा और आयुर्वेदीय स्वास्थ्य चिंतन
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वर्ष प्रतिपदा बसंत ऋतु में आती है अतः बसंत ऋतु में उपयोग किए जाने वाले समस्त आहार विहार का सेवन इस समय हमें करना चाहिए, अन्यथा कफज विकारों की उत्पत्ति होगी। इस अवसर पर कफ के शमन करने वाले लघु और रूक्ष आहार का सेवन करना चाहिए।
जैसे जौ,पुराने चावल, मूंग दाल,चना दाल,शहद,गाय का दूध विभिन्न प्रकार की हरी सब्जियां आदि।

निषेध आहार विहार

दही,दूध मावे और मेवों के मिष्ठान, उड़द दाल,नया गेंहू, तला हुआ भोजन,सब्जी,घी,अचार,अम्लीय फल और पेय,शीतल पेय,आइसक्रीम आदि।

दिन में सोना भी निषेध है

युक्त आहार विधि एवं बिहार को अपनाकर हम सभी वर्ष प्रतिपदा का उत्सव हर्षोल्लाह से मना सकते हैं नवीन वर्ष में स्वास्थ्य अच्छा रहे यह संकल्प आवश्यक है उसके अनुसार आचरण भी आयुर्वेदिक आहार विहार पद्धति से होना ही चाहिए अतः वर्ष प्रतिपदा पर हम सभी उक्त नियमों का पालन करें और स्वस्थ रहें।

वैद्य रामतीर्थ शर्मा
केंद्रीय सचिव,विश्व आयुर्वेद परिषद
विभागाध्यक्ष
संहिता सिद्धांत
शासकीय धन्वंतरि आयुर्वेद चिकित्सा महाविद्यालय, उज्जैन
मोबाइल–9993611976
मेल –drramteerthsharma@gmail.com