सार्थक चिंतन | राजेश कुमरावत ‘सार्थक’
एक संपादकीय टिप्पणी जो सिर्फ़ पढ़ने के लिए नहीं, सोचने के लिए लिखी गई है।
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कभी स्कूल की छत ढह जाती है, कभी अस्पताल आग की लपटों में झुलसता है, कभी बसें सड़क पर धधक उठती हैं और यात्रियों की चीखें हवा में लटक जाती हैं, राजस्थान हो या मध्यप्रदेश, घटना कोई भी हो, जिम्मेदारी का ठीकरा किसी पर नहीं, क्योंकि सबका मूल कारण एक ही है — लापरवाही, भ्रष्टाचार और नेताओं की चुप्पी का सांठगांठ, जैसे कानून और इंसानियत की शादी हो गई हो और शादीशुदा जिंदगी बस फाइलों में चल रही हो। मध्यप्रदेश में खांसी सिरप कांड में दर्जनों मासूम बच्चों की जान गई, उसके बाद प्रशासन ने जागने का नाटक किया और पूरे प्रदेश में अभियान चलाया, मगर राजस्थान की सड़कों पर बसों के रौद्र रूप और अवैध माल का खेल अभी भी जारी है, जैसे कोई काला जादू हर रूट पर फैल रहा हो। बसों की फिटनेस सर्टिफिकेट फर्जी, इमरजेंसी गेट बंद, यात्रियों को ठूंसकर भरा जाता है और आरटीओ की नींद इतनी गहरी कि लगता है सपनों में बस की सीटों के नंबर गिन रहे हों। यह लापरवाही नहीं, यह सिस्टम की चालाकी और कानून का तमाशा है, हर मुहर एक सौदा है, हर हादसा उसका नतीजा। सड़क पर नियम सिर्फ कागज़ों में जिंदा हैं, ज़मीनी हकीकत में बस राख और धुआँ बिखरा है, बस माफिया और विभागीय गठजोड़ कानून की आड़ में अपनी धुन बजा रहे हैं, और जनता की जिंदगी इस धुन के ताल पर थिरक रही है। चार दरवाज़ों की कानूनी बातें सिर्फ दिखावा हैं, सुरक्षा का नामोनिशान नहीं, अफसर सोते हैं, राजनेता चुप हैं, और मुनाफाखोरों की सांठगांठ में मौतें रोज़ का खाना बन चुकी हैं। अब वक्त सिर्फ बयान देने का नहीं, सख्त कार्रवाई का है, हर बस की फायर और फिटनेस जांच अनिवार्य हो, बंद इमरजेंसी गेट वाली बसें जब्त हों, फर्जीवाड़े में लिप्त अधिकारी सेवाओं से बाहर किए जाएँ, बस माफिया और विभागीय गठजोड़ पर कठोरतम कार्रवाई हो, वरना अगला हादसा सिर्फ खबर नहीं, नियति बन जाएगा। कागज़ पर बने नियम अगर ज़मीन पर ज़िंदगियां नहीं बचा पा रहे, तो वो सिर्फ राख का ढेर हैं, और हर हादसा प्रशासन की नींद पर व्यंग्य की घंटी की तरह गूंजता है। अब सिर्फ बयान नहीं, कार्रवाई चाहिए — वरना अगली बार हादसा किसी और सड़क, किसी और बस, किसी और मासूम की सांसें छीन लेगा, और हम फिर वही करेंगे — शोक व्यक्त करेंगे, दौरा करेंगे, मुआवजा बाँटेंगे और अपनी आंखें मूँद लेंगे, जैसे सिस्टम और इंसानियत की शादी अभी भी चल रही हो।
समाज का दर्पण :
हादसों के लिए दोष सिर्फ़ अफसरों का नहीं,
कभी-कभी हमारी खामोशी भी उतनी ही जिम्मेदार होती है।
अगर हम नियम तोड़ने वालों की बस में चढ़ना बंद कर दें,
अगर हम चुप न रहें जब कोई लापरवाही दिखे,
तो शायद एक जान कम न जाएगी — और एक सिस्टम सुधर जाएगा।
कानून से पहले अगर जमीर जागे, तो हर व्यवस्था सुधर सकती है।
“चौंकाने वाला सच: हर दिन रफ्तार लील रही है 50 से ज़्यादा युवाओं की जान”
सड़कें अब सफ़र का ज़रिया कम, मौत का मंजर ज़्यादा बनती जा रही हैं। साल 2023 में देशभर में 4 लाख 80 हज़ार से अधिक सड़क दुर्घटनाएं हुईं — यानी हर दिन 1317 हादसे और 474 मौतें। इनमें 1 लाख 72 हज़ार लोगों ने अपनी जान गंवाई और 4 लाख 62 हज़ार घायल हुए।सिर्फ बसों की बात करें तो 12,502 बस दुर्घटनाओं में करीब 4 हज़ार मौतें और 21 हज़ार लोग घायल हुए।
यह आंकड़े सिर्फ गिनती नहीं, चेतावनी हैं —हर अंक के पीछे एक बुझता हुआ चिराग, एक अधूरी कहानी और एक लापरवाह व्यवस्था की दस्तक है।अगर अब भी हम नहीं जागे, तो अगली गिनती शायद किसी अपने की होगी।
(स्रोत: सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय, भारत सरकार के अनुसार)
सार्थक चिंतन :
कभी सोचा है, हम हादसों पर शोक क्यों मनाते हैं, रोक क्यों नहीं पाते?
क्यों हर लपट बुझने के बाद ही आंख खुलती है?
सच्चाई यह है कि हमारे समाज में नीति का कफन और जिम्मेदारी की राख बहुत पहले ठंडी हो चुकी है।
हमारी सड़कें अब रास्ते नहीं, मौत के गलियारे बन गई हैं —
जहां बसें चलती नहीं, भागती हैं… और विभाग सोते नहीं, सौदे करते हैं।
अगर यही चलता रहा तो एक दिन यह सिस्टम भी राख में बदल जाएगा,
फर्क सिर्फ इतना होगा — उस दिन जलने वाले कागज़ नहीं, इंसान होंगे।

जहां व्यंग्य भी संवेदना बन जाए और शब्द विवेक की पुकार — वहीं से शुरू होता है ‘सार्थक चिंतन’।
— राजेश कुमरावत ‘सार्थक’ लेखक, वरिष्ठ पत्रकार, टिप्पणीकार , संपादक, जनमत जागरण









