आलेखविशेष

दलित साहित्य की अवधारणा एवं हिन्दी दलित साहित्य के प्रेरणास्रोत डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर

हिन्दी में दलित साहित्य वस्तुतः दलित आन्दोलन और दलित चेतना के गर्भ से ही पैदा हुआ। आज हिन्दी में दलित साहित्य एक स्थापित धारा है जिसने पूरे हिन्दी साहित्य के पाठ और समझ को नए सिरे से देखने के लिए विवश किया है। ‘‘दलित’’ शब्द 19वीं सदी के सुधारवादी आंदालेन (या नवजागरण) काल की उपज है। विवेकानन्द, एनी बेसेन्ट, रानाडे आदि ने इस शब्द का अनेक बार प्रयोग किया है। दलित शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘दल्’ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है-तोड़ना, हिस्से करना, कुचलना। संस्कृत शब्दकोशों में दलित शब्द के कुछ ऐसे ही विभिन्न अर्थ किए गए हैं- दलित-टूटा हुआ, कटा हुआ, पिसा हुआ, चिरा हुआ, खुला हुआ, दलित- दला गया, मर्दित, पीसा गया।
मानक हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोशों में दलित शब्द के लिए ‘डिप्रेस्ड’ (क्मचतमेेमक) मिलता है। इसके अतिरिक्त ‘डाउनट्रोडन’ शब्द भी मिलता है। हिन्दी शब्द कोशों में भी संस्कृत और अंग्रेजी के ही समान दलित का अर्थ है।- मसला हुआ, रौंदा हुआ, खंडित, मर्दित, विनष्ट किया हुआ।
उपर्युक्त अर्थ सन्दर्भों से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि समाज के उस वर्ग को, जिसे सबसे निम्न समझा जाता है और जिसका उच्च वर्गाें के लोगों ने दलन किया, विकसित नहीं होने दिया, दलित वर्ग कहा गया। ‘‘दलित शब्द की वर्गवादी व्याख्या माक्र्सवादी चिन्तकों ने की। राज किशोर के अतिरिक्त नामदेव ढसाल, म0न0 वानखेड़े, नारायण सुर्वे आदि दलित को वर्गीय दृष्टि से देखते हैं। लेकिन यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि आर्थिक रूप से सभी वंचित लोगों की सामाजिक प्रस्थिति समान नहीं होती। एक गरीब ब्राह्मण की वह सामाजिक प्रस्थिति नहीं होगी जो कि एक गरीब चमार की। बल्कि परम्परागत रूप से तो धन, शक्ति, यश एवं गुण से हीन ब्राह्मण भी धनवान, शक्तिशाली गुणवान अछूत से सामाजिक स्तर पर उच्च होता है। तुलसीदास की यह पंक्ति दृष्टव्य है-
‘‘पूजिय विप्र सीलगुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना।।’’
सामाजिक प्रस्थिति की असमानता का उदाहरण आये दिन गाँवों में देखने को मिलता है, मैनें अपने गाँव में देखा है कि एक अस्सी वर्ष का दलित वृद्ध एक पच्चीस वर्ष के ब्राह्मण को प्रणाम कहता है।

रामानन्द यादव’ विश्वमौलि’’