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दीपावली पर्व संस्कारविहीन होती मानव जाति को पुन:अनुप्राणित करता है

यूँ तो सूर्योदय के साथ प्रारम्भ होने वाला प्रत्येक दिन मानव सभ्यता की महान गाथा का एक स्वर्णिम अध्याय बन कर आता है| परन्तु कुछ दिन अपने भीतर ऐसे महत्वपूर्ण सन्देश लिये उदित होते हैं कि मानव समाज युग-युगांतरों तक उन्हें भुला नहीं पाता| ऐसे ही अविस्मरणीय दिनों को त्योहारों अथवा पर्वों के रूप में मनाया जाता है| विशेषतः भारत पर्वों के सम्बन्ध में सर्वाधिक समृद्ध देश है| पर्व भारतीय संस्कृति के प्राण हैं| जीवनाधार एवं पोषक हैं| क्योंकि भारतीय पर्वों में वह ऊर्जा है, जो संस्कार विहीन होती मानव-जाति को पुन: अनुप्राणित करने की क्षमता रखती है|इन सांस्कृतिक पर्वों की श्रृंखला में मुकुटमणि स्थान पर है कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाने वाला – ‘दीपावली पर्व’| इस पर्व का नाम ही इसकी उज्ज्वलता एवं ज्योतिर्मयता को प्रकट करता है| ‘दीप’ अर्थात दीया या दीपक| ‘अवली’ अर्थात पंक्ति|

इस पर्व पर जगमगाती दीपमालिकाएँ एक ही सन्देश देती हैं – अपने आंतरिक तमस को दूर करो| टिमटिमाते दीये हमसे कहते हैं कि अंतर्मन में, चाहे कैसी भी घोर अमावस्या क्यों न हो, प्रभु- ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित कर लो और हमारे समान प्रकाशित हो उठो| अपनी सारी कुत्सित और तामसिक प्रवृत्तियों को इस अलौकिक प्रकाश में विलीन कर डालो| अतः यह पर्व कोई वैभव-प्रदर्शन का उत्सव नहीं| भव्य संदेशों का वाहक है|

उत्तर भारत में यह पर्व प्रमुखतः श्री राम-सीता के अयोध्या में पुनरागमन की ख़ुशी में मनाया जाता है| त्रेता युग का यह सम्पूर्ण घटनाक्रम अपने भीतर एक अलौकिक सन्देश लिये हुए है| अध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार सीता आत्मा का प्रतीक है| वह मन रूपी रावण की देह रूपी लंका में कैद है| मन में व्याप्त वासनाएँ व विकार आसुरी शक्तियों के प्रतीक हैं| ये तरह-तरह की यातनाएँ व प्रलोभन देकर आत्मा को निरंतर पीड़ित कर रहे हैं| ठीक उसी प्रकार जैसे सीता जी को रावण की राक्षसी सेविकाएँ उत्पीड़ित करती थीं|

ज्ञातव्य है कि, ऐसे में श्री हनुमान रामदूत बनकर अशोक वाटिका में उनके पास पहुँचे| हरण के समय, सीता जी रावण का साधु वेश देखकर एक बार धोखा खा चुकी थीं| इसलिए इस बार उन्होंने तत्क्षण ही हनुमान जी पर विश्वास नहीं किया| उनसे उनके रामदूत होने का प्रमाण माँगा| हनुमान जी ने प्रमाण रूप में प्रभु श्री राम की मुद्रिका उनके सामने प्रस्तुत की| इस मुद्रिका में सीता जी ने प्रभु राम के साक्षात् दर्शन किये| दर्शनोपरांत ही उन्होंने हनुमान जी को प्रभु राम के दूत के रूप में स्वीकार किया| प्रभु के अलौकिक दर्शन ने निराश सीता जी में एक अटूट विश्वास का संचार कर दिया कि अब शीघ्र ही उन्हें प्रभु मिलन का आनंद प्राप्त होगा| यही विश्वास, यही आश्वासन प्रत्येक युग में, प्रत्येक जीवात्मा अपने लिए चाहती है| मन रूपी रावण के शासन से बंधन मुक्त होने के लिए हमारी आत्मा को भी ऐसे सतगुरु की नितांत आवश्यकता है, जो हमें बंधनों से मुक्त कर सके| यह कथा एक और महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश डालती है|

वर्तमान समय में, स्थान-स्थान पर भगवा वेशधारी धर्म- प्रचारक नजर आते हैं| ऐसे में हर जिज्ञासु को, सीताजी की ही भांति, उनसे उनकी पूर्णता का प्रमाण मांगना होगा| जो पूर्ण गुरु होंगे, वे प्रमाण स्वरूप ब्रह्मज्ञान रूपी मुद्रिका प्रदान करेंगे| इस ज्ञान के माध्यम से शिष्य को उसके भीतर ही परमात्म-प्रकाश(श्री राम) के प्रत्यक्ष दर्शन करवा देंगे| वस्तुतः यही गुरु की सत्यता का प्रमाण है|

फिर जैसे सीता जी अपनी मुक्ति के प्रति पूर्ण निश्चिन्त हो गई थीं, ऐसे ही सच्चे गुरु की रहनुमाई में एक शिष्य पूरी तरह निश्चिन्त हो जाता है| उनसे प्राप्त परमात्म-दर्शन के बाद वह भी पूरे विश्वास के साथ मुक्ति और प्रभु मिलन के पथ पर अग्रसर होता है और निःसंदेह मंजिल को प्राप्त करता है | एक पूर्ण सतगुरु के सान्निध्य में शिष्य अपने भीतर अलौकिक दीपावली मनाता है| सतगुरु की कृपा से उसका हृदयकाश दिव्य दीपमालाओं, अनगिनत दीपशिखाओं व स्वर्णिम प्रकाश से अटा रहता है और यही इस प्रकाश के महोत्सव का सार्थक स्वरूप है|