जो देश अपने सपूतों को भूल जाता है उस देश के आत्मसम्मान को हीनता की दीमक चट कर जाता है। आक्रांताओं से लोहा लेकर देश की अस्मिता की रक्षा करने वालों की वीरता को अगर विस्मृत कर दिया जाए तो फिर हम देशप्रेम पर लम्बे चौड़े व्याख्यान देने का नैतिक अधिकार खो देते हैं। अखंड भारत के स्वप्न को लेकर आगे बढ़ रही युवा पीढ़ी को हमारे नायकों की गाथा सुनाने से पहले इस तथ्य के कारणों को भी जानना होगा जिनके चलते राष्ट्रीय स्तर पर उस महानायक को भुलाया गया जिसके अद्वितीय कार्यों की वजह से मुग़लों का सम्पूर्ण भारतवर्ष पर क़ाबिज होने का सपना अधूरा ही रह गया।
जी हाँ! हम बात कर रहे हैं 17वीं शताब्दी में इतिहास रचने वाले वीर योद्धा लाचित बोड़फुकन की। भारत के कुछ इलाके ऐसे भी थे, जहां मुगल बार-बार कोशिश करने के बावजूद अपना राज स्थापित नहीं कर सके। ऐसा ही एक राज्य है असम, जिसमें सैंकड़ों सालों तक अहोम राजवंश का शासन रहा। मुगलों ने इस दौरान कई बार कोशिश की, लेकिन लाचित बोडफुकन जैसे योद्धा के चलते मुगल, असम पर कभी भी कब्जा नहीं कर सके। उन्होंने शक्तिशाली मुगलों से ना सिर्फ टक्कर ली बल्कि हराया भी।
अहोम राजवंश की स्थापना 1228 ईस्वी में म्यांमार के एक राजा ने की थी। मुगलों और अहोम राजवंश के बीच करीब 70 सालों तक रुक-रुककर लड़ाई चलती रही, लेकिन मुगल इस राजवंश को कभी नहीं जीत सके। सामान्य तौर पर ऐसा माना जाता है कि किसी भी राजवंश में राजा अग्रणी हो कर बाहरी आक्रांताओं से टक्कर लेता है। लेकिन ये एक अनूठी गाथा थी जहाँ एक सेनापति ने वीरता और राष्ट्रभक्ति के नए मापदंड स्थापित किये। लाचित बोड़फुकन असम के अहोम राजवंश के सेनापति थे।
उनका जन्म 24 नवंबर1622 में अहोम राजवंश के एक बड़े अधिकारी के घर हुआ। बचपन से ही काफी बहादुर और समझदार लाचित जल्द ही अहोम राजवंश की सेना के सेनापति यानि ‘बोडफुकन’ बन गए। लाचित ने सेना का सेनापति रहते हुए अहोम सेना को काफी ताकतवर बनाया, जिसका फायदा उन्हें मुगलों के खिलाफ लड़ाई में मिला।
इतिहासकारों के अनुसार 1662 में मुगल सेना ने गुवाहटी पर कब्जा कर लिया था लेकिन 1667 मे गुवाहटी पर एक बार फिर से अहोम राजाओं का कब्जा हो गया। लाचित इस लड़ाई के नायक रहे। उन्होंने बड़ी ही चतुराई से मुगलों को गुवाहटी से खदेड़ दिया। इसके बाद उनके नेतृत्व में ही सरायघाट का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
1667 में अहोम राजाओं से मिली करारी हार के बाद मुगल बुरी तरह से तिलमिला गए। जिसके कुछ समय बाद ही मुगल शासक औरंगजेब ने राजपूत राजा राम सिंह के नेतृत्व में विशाल मुगल सेना को अहोम राजवंश पर जीत के लिए रवाना कर दिया। 1669-70 में मुगल सेना और अहोम राजाओं के बीच कई लड़ाईयां लड़ी गईं, जिनका कोई ठोस नतीजा नहीं निकल सका। इसके बाद 1671 में सरायघाट इलाके में ब्रह्मपुत्र नदी में अहोम सेना और मुगलों के बीच ऐतिहासिक लड़ाई हुई। यह लड़ाई इतिहास की अहम लड़ाईयों में गिनी जाती है, जिसने पानी में लड़ाई की तकनीक को नए आयाम दिए।
सरायघाट की लड़ाई में मुगल सेना बड़े बड़े जहाजों पर सवार होकर असम में घुसने की कोशिश कर रही थी, लेकिन अहोम सेना ने संख्या में कम होते हुए भी तकनीक और चतुराई के दम पर शक्तिशाली मुगल सेना को हरा दिया। कहा जाता है कि सरायघाट की लड़ाई से पहले अहोम सेना के सेनापति लाचित बोरफुकन बीमार हो गए और युद्ध में हिस्सा नहीं ले पाए। जैसे ही युद्ध शुरु हुआ अहोम सेना मुगल सेना से हारने लगी। इसकी सूचना मिलते ही लाचित बीमार होते हुए भी लड़ाई में शामिल हुए और अपनी कमाल की नेतृत्व क्षमता के दम पर सरायघाट की लड़ाई में करीब 4000 मुगल सैनिकों को मार गिराया और उनके कई जहाजों को नष्ट कर दिया। सरायघाट की लड़ाई में करारी हार के बाद मुगल पीछे हट गए और फिर कभी भी असम पर आक्रमण के लिए नहीं लौटे।
सरायघाट की लड़ाई के कुछ समय बाद ही लाचित की बीमारी से मौत हो गई, लेकिन यह वीर योद्धा इतिहास में सदा के लिए अमर हो गया। असम में आज भी लाचित बोरफुकन का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है। सरायघाट युद्ध में अहोम सेना की विजय को याद करते हुए हर साल लाचित के जन्मदिवस 24 नवंबर पर असम में लाचित दिवस मनाया जाता है। गोहैन गांव में लाचित बोड़फुकन की स्मृति में बने भव्य स्मारक में इस वीर योद्धा के अवशेष सहेजे गए हैं।
औरंगज़ेब चाहता था कि उसका साम्राज्य पूरे भारत के ऊपर हो लेकिन भारत के उत्तर पूर्वी हिस्से तक वह नहीं पहुँच पा रहा था। यह बात औरंगज़ेब को सपनों में सताने लगी थी। अगर वो असम जीत लेता तो जल्दी ही उत्तर-पूर्वीं भारत पर कब्जा कर सकता था। इसीलिए औरंगज़ेब के अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए विशाल सेना असम पर आक्रमण करने के लिए भेजी थी। दरअसल सरायघाट के युद्ध का विवरण लाचित के व्यक्तित्व की महागाथा का सबसे अहम् हिस्सा है। ये वो कहानी है जो असम के बच्चे-बच्चे को आज भी याद है। युद्ध के बीच में वीर लचित बीमार पड़ गया फिर भी वो फिर से जा डटा राजा चक्रध्वज सिंह को मिले उस दायित्व और वचन के लिए, जो उनके पिता राजा जयधज सिंह ने उन्हें दिया था।
सेनानायक लाचित ने युद्ध से पहले मिट्टी से तटबंधों का निर्माण करने का आदेश दिया और ये ज़िम्मा अपने मामा मोमाई तामुली को दिया। बताया जाता है की कार्य में प्रगति को देखने तट के निकट पहुंचा तो उसने देखा, सारे सैनिक हताश पड़े हैं। सैनिकों ने मान लिया था कि वो सूर्योदय तक ये तटबंध नहीं बना पाएंगे। एक तरह से उन्होंने युद्ध शुरू होने से पहले ही हार स्वीकार कर ली थी। लचित को अपने मामा पर बहुत गुस्सा आया जो अपने सैनिकों को काम करने के लिए उत्साहित भी नहीं कर पाए। मामा की वजह से देरी तो हुई ही, इसके साथ ही पहले से बनी रणनीति पर भी संकट आ गया। लाचित ने ने कहा, ‘मेरा मामा मेरे देश से बड़ा नहीं है।” उसने आव देखा ना ताव और आहोम राजा से सेनापति को मिली स्वर्ण तलवार से अपने मामा का सिर धड़ से अलग कर दिया।
लचित के ऐसा करने से सैनिकों में एक जोश भर गया। सूरज के उगने से पहले ही दीवार बनकर तैयार हो गई। लाचित ने भूमि के साथ-साथ ब्रह्मपुत्र नदी पर भी अपनी जीत सुनिश्चित कर ली थी। इस वीर योद्धा ने अपने सैनिकों से कहा, ‘जब मेरे देश पर आक्रमणकारियों का खतरा बना हुआ है, जब मेरे सैनिक उनसे लड़ते हुए अपनी ज़िंदगी दांव पर लगा रहे हैं, तब मैं महज़ बीमार होने के कारण कैसे अपने शरीर को आराम देने की सोच सकता हूँ! मैं कैसे सोच सकता हूँ अपने बीवी और बच्चों के पास घर वापस चले जाने के बारे में, जब मेरा पूरा देश खतरे में है!”
सन् 1672 में उनका देहांत हो गया। भारतीय इतिहास लिखने वालों ने इस वीर की भले ही उपेक्षा की हो, पर असम के इतिहास और लोकगीतों में यह चरित्र मराठा वीर शिवाजी की तरह अमर है। आज भी नेशनल डिफेन्स अकादमी में बेस्ट कैडेट का गोल्ड मैडल लाचित के नाम से जुड़ा है। आवश्यकता है तो बस इस बात की कि लाचित की कहानी सिर्फ असम नहीं बल्कि देश के हर नागरिक की स्मृति में ताज़ा रहे।
सीमा संधोष से साभार।