धर्मं/ज्योतिष

देवप्रभाकर शास्त्री ‘दद्दा जी’ का देवलोकगमन रविवार रात हो गया

आशुतोष राना. कर्मयोगी, ऋषिराज गृहस्थ संत परम पूज्य गुरुदेव पंडित श्री देव प्रभाकर जी शास्त्री जिन्हें सम्पूर्ण जगत आदर व प्रेम से ‘दद्दाजी’ कह के सम्बोधित करता था, सच्चे अर्थों में “संकल्प मूर्ति” थे। पूज्य दद्दाजी को “संकल्प का पर्याय” कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। परमपूज्य दद्दाजी ने जहां अपने पूज्य गुरुदेव धर्म सम्राट यति चक्र चूड़ा मणि स्वामी करपात्री जी महाराज के राष्ट्र कल्याण के लिए 11 बार सवा करोड़ पार्थिव शिवलिंग निर्माण महारूद्र यज्ञ के संकल्प को पूरा किया, वहीं स्वयं के 45 बार इस यज्ञ को सम्पन्न करने के संकल्प को चित्रकूट की पावन भूमि पर पूर्ण किया।

45 वे यज्ञ के समापन पर परमपूज्य दद्दाजी से हम सभी शिष्यों ने निवेदन किया की परमपूज्य हम शिष्यगण चाहते हैं कि आपका यह धार्मिक अभियान कम से कम 108 यज्ञों की संख्या तक पहुंचे, तब पूज्य दद्दाजी ने अत्यंत करुणा के साथ अपने शिष्यों के शिवसंकल्प को बड़ी सहजता से स्वीकार कर 108 यज्ञों की घोषणा कर दी और उसे स्वयं का संकल्प बना लिया जिसे उन्होंने 2016 में महाकाल की नगरी उज्जैन में हुए महाकुंभ के अवसर पर पूर्ण किया। जो अपने गुरु के संकल्प को पूर्ण करे, स्वयं के संकल्प को पूर्ण करे व अपने शिष्यों के संकल्प को पूर्ण करे वह स्वयं शिव ही हो सकता है।

जहां धर्म विभिन्न मतमतांतरों के चलते शैव व वैष्णव सम्प्रदाय में बँट चुका है वही परमपूज्य गुरुदेव दद्दाजी ने अपनी अखंड दृष्टि के चलते खंड में बटी हुई आस्थाओं को पुनः अखंड कर दिया। वे एक ही यज्ञ पंडाल में सुबह “हर” (शिव) का निर्माण करवाते थे और संध्याकाल वहीं स्वयं के मुख से “हरी” ( कृष्ण ) की कथा सुनाते थे इस नाते पूज्य दद्दाजी “हरिहरात्मक” यज्ञ के अनूठे पुरोधा थे।

करूणा और कृपा में अंतर होता है। किसी को- गिरे हुए, व्यथित, दुखी देख कर मन में दया का भाव आना करूणा है, और उस गिरे हुए को हाथ पकड़ के उठा देना उसकी सहायता कर उसे उसके गंतव्य (लक्ष्य) तक पहुँचा देना कृपा है, हे परमपूज्य गुरुदेव आप कृपानिधान ही नहीं करुणासिंधु भी थे।

परमपूज्य गुरुदेव एक ऐसे साधक, एक ऐसे संत थे जो मात्र स्वयं के चैन की तलाश में नहीं बल्कि अपने संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति को सुख चैन आनंद उत्साह और उमंग से भरने के लिए प्रयासरत रहते थे। दद्दाजी ने अपने शिष्यों को मात्र जीविका निर्वहन की ही नहीं, जीवन निर्वाहन की शिक्षा दी है। समस्त चराचर के लिए समभाव और तत्परता के कारण उनके संदर्भ में हमें ये कहने की प्रेरणा मिलती है की ..

“अपने अपने घरन में सब जन को है काम।

उनको सबके घरन में धन्य धन्य घनश्याम।।”

विश्वकल्याण के लिए परम पूज्य दद्दाजी के द्वारा कराए जाने वाला सवा करोड़ पार्थिव (मिट्टी से) शिवलिंग निर्माण यज्ञ, योग भी है और सुयोग भी है। परमपूज्य दद्दाजी ने सन 1980 से लेकर आज तक, निरंतर 40 वर्षों में हम सभी को यह सुयोग प्रदान किया है।

पूरे भारतवर्ष में दिल्ली, मुंबई, शिर्डी, वाराणसी, रामेश्वरम, कानपुर, इलाहबाद, वृंदावन, भोपाल, इंदौर, उज्जैन, जबलपुर, कटनी, सागर, छतरपुर, बुरहानपुर से लेकर छोटे-छोटे शहरों और गाँवों में पूज्य दद्दाजी ने अभी तक 131 बार इस यज्ञ को सफलता पूर्वक सम्पन्न किया है, जिसमें उन्होंने छः सौ करोड़ शिवलिंगों (6 अरब) का निर्माण करवा दिया है, जो भारत की आबादी के अनुपात में चार गुना है।

परमपूज्य दद्दाजी के द्वारा सम्पन्न किए जाने वाले इस यज्ञ में विभिन्न वर्ग , वर्ण, जाति , आयु ,धर्म के श्रृद्धालु सम्मिलित रहते थे। यज्ञ में लगने वाली समस्त हवन पूजन सामग्री, भोजन भंडारा सातों दिन भक्तों को निःशुल्क उपलब्ध कराया जाता था।

उपलब्ध शास्त्रों व पुराणों में संकलित सूचनाओं के आधार पर यह एक ऐतिहासिक सत्य स्पष्ट होता है कि सतयुग से लेकर कलयुग तक इस सर्व कल्याणकारी यज्ञ को १३१ बार सफलतापूर्वक सम्पन्न करने का श्रेय परमपूज्य दद्दाजी को ही जाता है।

परमपूज्य दद्दाजी अपने इस धार्मिक उद्यम के कारण ज्ञात और अज्ञात इतिहास में एक मात्र संत हैं, जिन्होंने हमारे पूज्य ऋषियों की गृहस्थ परम्परा का पालन करते हुए, स्वयं सदगृहस्थ रहते हुए इस महानतम शिवसंकल्प को पूरा किया व हर-हर महादेव के इस जयघोष को घर-घर महादेव में रूपांतरित कर दिया।

पूज्य दद्दाजी का यह शिवप्रकल्प मात्र प्रसार के लिए नहीं, जनसामान्य के परिष्कार के लिए होता था यह स्वार्थ सिद्धि का नहीं, परमार्थ सिद्धि का हेतु था। हम भोगियों को योगीश्वर महादेव व योगेश्वर श्रीकृष्ण के संम्पर्क में लाने वाले, हमारे शवयोग को शिवयोग में रूपान्तरित करने वाले, मृणमय को चिन्मय बनाने वाले शिवस्वरूप ऋषिराज गृहस्थ संत परमपूज्य दद्दाजी आज ब्रह्मलीन हो गए..

कहने को तो उनका पंच भौतिक शरीर पंच महाभूतों में विलीन हो गया किंतु मेरा अनुभव है कि परमपूज्य दद्दाजी के जैसी पुनीत चेतनाएँ संसार में आती हैं और अपने सम्पर्क में आने वाली सभी चेतनाओं के आचार, विचार, व्यवहार में सदा के लिए वर्तमान हो जाती हैं। परमपूज्य दद्दाजी भले ही आज दैहिक रूप से हम सभी शिष्यों की दृष्टि से ओझल हो गए हैं किंतु मेरा विश्वास है कि वे अपने सूक्ष्म रूप से सदैव हम सभी शिष्यों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते रहेंगे, अब से उनका दिव्य स्वरूप हमारी आखों का विषय नहीं, अनुभूति का विषय हो गया है।

हमारी वासना को उपासना की ओर मोड़ने वाले, हमें विकल्प से मुक्त करते हुए संकल्प से युक्त करने वाले, हमारी विकार वृत्ति को विचार वृत्ति में परिवर्तित करने वाले, हमारे चिंतन को विषय से हटा कर ब्रह्म से जोड़ने वाले, हमें वैरागी नहीं अनुरागी होने के प्रेरणा देने वाले, जगत में रहते हुए हमारे चिंतन को जगदीश्वर की ओर मोड़ने वाले। हे दयानिधि, मैं अकिंचन आपसे प्रार्थना करता हूँ मुझ जैसे मूढ्मती शिष्य को आपकी कृपाछाया जीवनपर्यंत मिलती रहे मैं सदैव सदमार्ग पर चलते हुए आपकी अहेतुकी कृपा का सदुपयोग करता रहूं।