विशेषसाहित्य

ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है – दुष्यंत कुमार की यह गज़ल आज के युग के अनुकूल साबित होती है !!!!

कविता समाचार लाइन |

आज के युग के हिसाब से अनुकूल साबित होती दुष्यंत कुमार की यह कविताये हम प्रस्तुत कर रहे है | समाज में भ्रष्टाचार , स्वार्थ , लालच , पाखंड , प्रकृति से अव्यवहार , आदि समाज को दूषित करता है पर दुष्यंत कुमार जैसे सामाजिक चिन्तक हमें समझाइश देते है कि ऐसा करने से हमें कुछ भी प्राप्त नही होता  !!

ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है

एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है
राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर

इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है
आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है

हुस्न में अब जज़्बा—ए—अमज़द नहीं है
पेड़—पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे

रास्तों में एक भी बरगद नहीं है
मैकदे का रास्ता अब भी खुला है

सिर्फ़ आमद—रफ़्त ही ज़ायद नहीं
इस चमन को देख कर किसने कहा था

एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है.   

दुष्यंत जी की एक और गज़ल —-

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं
जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं

वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है
मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं

यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन
ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं

चले हवा तो किवाड़ों को बंद कर लेना
ये गरम राख़ शरारों में ढल न जाए कहीं

तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है
तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं

कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू उभरी
कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं

ये लोग होमो-हवन में यकीन रखते है
चलो यहां से चलें, हाथ जल न जाए कहीं .

आदित्य त्रिवेदी @ samacharline